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कब तलक मुद्दआ कहे कोई / नासिर काज़मी

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कब तलक मुद्दआ' कहे कोई
न सुनो तुम तो क्या कहे कोई

ग़ैरत-ए-इश्क़ को क़ुबूल नहीं
कि तुझे बेवफ़ा कहे कोई

मिन्नत-ए-ना-ख़ुदा नहीं मंज़ूर
चाहे उस को ख़ुदा कहे कोई

हर कोई अपने ग़म में है मसरूफ़
किस को दर्द-आश्ना कहे कोई

कौन अच्छा है इस ज़माने में
क्यूँ किसी को बुरा कहे कोई

कोई तो हक़-शनास हो यारब
ज़ुल्म को ना-रवाँ कहे कोई

वो न समझेंगे इन किनायों को
जो कहे बरमला कहे कोई

आरज़ू है कि मेरा क़िस्सा-ए-शौक़
आज मेरे सिवा कहे कोई

जी में आता है कुछ कहूँ 'नासिर'
क्या ख़बर सुन के क्या कहे कोई।