जब वफ़ा का चराग़ जलता है
प्यार हर सू फ़ज़ा में पलता है
पैर इंसान का जब फिसलता है
कारे-दरिया में जा निकलता है
रौंद देता है ये जहां उसको
गिरने वाला कहां सम्भलता है
ज़िंदा रहने के फ़न से है वाकिफ़
वक़्त के साथ जो बदलता है
जो पुजारी है नफ़रतों का मगर
परचमे-अम्न ले के चलता है
लोग करते थे कल सलाम जिसे
आज वो सर झुका के चलता है
चल तो निकले हैं देखना है मगर
रास्ता किस जगह निकलता है
पा ही लेता है अपनी मंज़िल को
बांध कर क़स्द जो निकलता है
हर परस्तिश के वो बशर क़ाबिल
रुख़ हवाओं के जो बदलता है