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डाकिया आँखें / कविता भट्ट

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1
मैं ही बाँचूँगी
पीर-अक्षर पिय,
जो तेरे हिय।
2
नारी है देह
आत्मा-नर न नारी
मात्र चेतना।
3
देह तिलिस्म
आत्मा तटस्थ द्रष्टा
लिंग-भेद क्यों ?
4
दुस्साहस है
नारी में पुरुष-सा
किन्तु संस्कारी।
5
ममता फूटे
नैनों और वक्षों से
क्यों उत्पीड़न।
6
ममतामयी
रजवाड़ों में भी तो
चादर-सी थी।
7
कब पवित्र
नारी के विषय में
दृष्टि विचित्र।
8
नारी सुलगी
राख में चिंगारी-सी
मन ही मन।
9
हम न होंगे
धिक्कारेगा तुमको
सूना-सा द्वार।
10
डाकिया आँखें
मन के खत भेजें
प्रिय न पढ़े।