अमर साहनी / रहगुज़र / शोभा कुक्कल
इसमें कोई शक नहीं कि सियासत के गंदे खेल के कारण उर्दू पढ़ने लिखने वालों की तादाद काफी कम हुई है। लेकिन साथ ही एक दिलचस्प सच्चाई यह भी है कि उर्दू से महब्बत करने वाले उर्दू दोस्तों की संख्या उल्लेखनीय हद तक बढ़ी है, बल्कि यह कहना हक़ीक़त के ज़ियादा क़रीब होगा कि उर्दू के आशिक़ों में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। इस का सारा श्रेय उर्दू की ख़ूबसूरत हसीन तरीन विधा ग़ज़ल को जाता है। ग़ज़ल की पैदाइश उर्दू की एक और अहम विधा 'क़सीदा' की कोख से हुई है। बादशाहों, नवाबों और प्रशंसकों की तारीफों के पुल इसी विधा के माध्यम से बांध कर शायर लोग इनाम इकराम हासिल किया करते थे। वक़्त के साथ शायरों के जज़्बात और ख़यालात का रुख़ बदला तो ग़ज़ल वजूद में आई। मक़सद अब शायरों का तारीफ करना ही था। बस 'टारगेट' बदल गया। अब शाहों, बादशाहों के बजाय हसीन औरतों के क़सीदे पढ़े जाने लगे। ग़ज़ल का मरकज़ हुस्नो-जमाल, शराब और साक़ी ही था जो ऐयाश शाहों, नवाबों का पसंदीदा विषय था, मगर दानिशवरों, शायरों ने इस किस्म के विषय की आड़ में ज़िन्दगी के फ़लसफ़े को भी बख़ूबी उकेरा। वक़्त फिर बदला। शाही दरबार न रहे तो ग़ज़ल कोठों की ज़ीनत बन गई। जहां संगीत का सहयोग पाकर ख़ूब मक़बूल हुई और फिर इस मक़बूलियत ने इसे गली कूचों में पहुँचाया तो ग़ज़ल आम आदमी की भी चहेती बन गयी। ज़ाहिर है आम आदमी से मुलाक़ात के बाद ग़ज़ल ने आम आदमी को समझा तो अपना हुलिया भी काफी हद तक तब्दील कर लिया। ग़ज़ल की लोक प्रियता ने नये-पुराने, छोटे-बड़े शायरों को अपने सम्मोहन पाश में बांध लिया। अमीर ख़ुसरो और कबीर भी इसके सम्मोहन से खुद को ना बचा सके।
नई शायरा शोभा कुक्कल का भी इस तरफ रुझान होना क़ुदरती था। हालांकि इस ग़ज़ल संग्रह से पहले शोभा कुक्कल का एक काव्य संग्रह "क़तरा क़तरा लम्हा लम्हा" पाठकों को परोस कर अच्छी खासी वाहवाही लूट चुका हैं। उनकी कविताओं में जीवन के लम्बे अनुभव और परिपक्वता की छाप है। शायद इसकी वजह यह रही कि ज़िन्दगी के उस मोड़ पर शोभा ने शायरी की शुरुआत की जब आदमी के पास ज़िन्दगी का लम्बा तज़ुर्बा एक कीमती ख़ज़ाने की तरह होता है। ज़ेरे-नज़र ग़ज़लियात का मजमूआ (संकलन) भी इस तरफ खुला इशारा करता है। शोभा की यह खुश किस्मती है कि उसे हिंदुस्तान के मक़बूल और उस्ताद शायर जनाब राजेन्द्र नाथ 'रहबर' की रहबरी हासिल है जिनके नतीजे के तौर पर शोभा की ग़ज़लें ग़ज़ल के फ़न पर खरी उतरती हैं। ख़यालात और जज़्बात की परिपक्वता तो इनके लम्बे जीवन के अनुभव को प्रतिबिम्बित करती ही है जो निश्चय ही पढ़ने वालों को मज़ा तो देगी और ज़िन्दगी व उसके मसाइल को समझने में मददगार भी साबित होगी और उन्हें समझने की प्रेरणा भी देगी। मेरी दुआएं और नेक ख़्वाहिशात तो उसके साथ हमेशा रहेंगी।