भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सानेट / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:49, 23 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार मुकुल |संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / क...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जीवन ऐसे ही चलता है, रफ़्ता-रफ़्ता

अपनी राह बनाता। कभी चढ़ाता ख़ुद को

ही सर, कभी समय की सख़्त शिला से

सर टकराता, कण-कण तोड़, अगम पथों को

सरल बनाता। ख़ुद हो जाता रेती-रेती

पर लहरों संग फिरता धाता, नाद उठाता

सा-रे-गा से सप्तम स्वर तक · · ·

प्राण सुखाकर गीत बनाता, फिर-फिर गाता।


अगर कभी, मिलती ढलान जो, भागता सरपट

प्रखर वेग से, तेज चलाता गति की, मति की

अपनी ही औकात बताता, कि हहास जो

बांध रहा वह, है उसका ही अर्जित यश-बल

जनम अकारण नहीं किया है उसने अपना

ऐसा कह मन ही मन खुद को, भरमाता जाता।