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कुरूप / वार्सन शियर / राजेश चन्द्र

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तुम्हारी बेटी कुरूप है
वह जानती है इस क्षति को नज़दीक़ से,
ढोती हुई समूचे शहर को अपनी कोख में।

एक बच्ची की तरह,
रिश्तेदारों ने गोद में नहीं लिया उसे,
उसने दोटूक कर दिया था
जंगल और समुद्र के जल को।
उन्होंने कहा कि उसने
ताज़ा कर दी थीं स्मृतियाँ युद्ध की।

उसके पन्द्रहवें जन्मदिन पर तुमने सिखाया उसे
कि कैसे गूँथने हैं उसे अपने बाल रस्सियों जैसे
और सुवासित करने हैं लोबान के धुएँ से।

तुमने गलगला करवाया उसे गुलाबजल से
और जब उसे खाँसी आई, तो कहा
तुम जैसी मकाण्टो लड़कियों से
नहीं आनी चाहिए बास
तनहाई या रिक्तता की।

तुुम तो माँ हो उसकी,
फिर क्यों नहीं चेतावनी देती उसे,
उसे थाम लो पछाड़ खाती नाव की तरह
और समझाओ कि मर्द उसे पसन्द नहीं करेंगे
अगर वह तिरोहित रहेगी महाद्वीपों में,
अगर उसके दाँत रहे छोटे उपनिवेशों जैसे,
अगर उसका पेट रह गया किसी टापू-सा
अगर उसकी जांघें सरहदों-सी हुईं तो?

चाहते क्या हैं मर्द कि बस लेटी रहो
और देखती रहो दुनिया को दहकते हुए
उसके शयनकक्ष में?

तुम्हारी बेटी का चेहरा
एक छोटा-मोटा विप्लव है,
उसके हाथ जैसे कि कोई गृहयुद्ध,
एक-एक शरणार्थी शिविर
पीछे दोनों ही कानों के,
एक जिस्म बेढब चीज़ों में लिथड़ा हुआ।

लेकिन हे ईश्वर,
उसने पहना क्यों नहीं है
ठीक तरह से इस दुनिया को?