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जल रही अवसाद की कंदील / मालिनी गौतम

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गूँजते हैं कुछ सुलगते प्रश्न चारों ओर ।

स्वार्थ की काई
जमी है आचरण पर
नींद भारी पड़ रही है
जागरण पर

है प्रतीक्षा में कभी से एक चिन्तित भोर ।

देह पीली इस सदी की
हो गई है
सर्द रातों -सी
सिमट कर सो गई है

कान पर बजता नहीं ख़ामोशियों का शोर ।

ग्राफ़ छल का रात-दिन
ऊपर चढ़ा है
पर न सच का वृत्त
बिल्कुल भी बढ़ा है

त्रिभुज में उलझी हुई है एक कपटी डोर ।

मन जुलाहा लच्छियों को
खोलता है
रंग यादों के क्षितिज पर
घोलता है

जल रही अवसाद की कंदील चारों ओर।