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फुलवारी / नीरव पटेल / मालिनी गौतम

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हुकुम हो तो सर-माथे पर
लेकिन फिर फूलों को क्या कहेंगे?
महक थोड़े ही मर जाएगी?
और इनको फूल कहेंगे?
गन्ध थोड़े ही ख़त्म हो जाएगी?
गाँव होगा वहाँ फुलवारी तो होगी ही
  
ये फूल सदियों से अन्धकार में सड़ रहे थे
कभी चाँदनी रात नसीब होती तो कुमुदनी की तरह पनपते
कभी रातरानी की तरह चुपके-चुपके ख़ुशबू फैलाते
कभी छुई-मुई की तरह चुपचाप रोते
लेकिन इस सदी के सूरज ने ज़रा दया-दृष्टि की
इसलिये टपाटप खिलने लगे
रंग तो इनका ऐसा निखरा कि तितलियों को भी प्रेम हो जाए
सुगन्ध तो इन्होंने ऐसी फैलाई कि मधुमक्खी भी डंक मारना भूल जाए,
सर्वत्र फैल गई है इन जंगली फूलों की ख़ुशबू
संसद में, सचिवालय में, स्कूल-कॉलेजों में
जैसे इनके उच्छवास से ही
सारा वातावरण प्रदूषित है।
यह तो ठीक है कि
गाँव होगा वहाँ फुलवारी तो होगी
पर अब यह फूल-फ़जीहत ज्यादा सहन नहीं होगी
 
राष्ट्रपति के मुगल गार्डन में भले ही ठाठ-बाट से रहें ये फूल
पर ये फूल नाथद्वारा में तो नहीं ही रह सकते
गाँधीजी ने भले इन्हें माथे पर चढ़ाया हो
कुचल दो, मसल दो, इन अस्पृश्य फूलों को।
लेकिन फूलों के बिना पूजा कैसे करेंगे?
इच्छाओं के झूले कैसे झूलेंगे?
भद्र पेट देवता को कैसे रिझाएँगे?
इन फूलों की महक से तो पुलकित है
अपना पाख़ाना जैसा जीवन
ये तो पारिजात हैं इस पृथ्वी के
रेशम के कीड़े की तरह
खूब जतन से सँभालना पड़ेगा इस फुलवारी को
गाँव-गाँव और शहर-शहर में
इसलिए माई-बाप सरकार का हुकुम हो तो सर-माथे पर
लेकिन फिर फूलों को क्या कहेंगे?
महक थोड़े ही मर जाएगी?
और इनको फूल कहेंगे? ?
गन्ध थोड़े ही ख़त्म हो जाएगी?
गाँव होगा वहाँ फुलवारी तो होगी ही

 अनुवाद : मालिनी गौतम
नोट -- गुजरात में दलितों के लिए पुराने समय में "ढेढ़" शब्द प्रचलित था जिसे बाद में प्रतिबन्धित कर दिया गया। इसी शब्द पर एक कहावत "गाँव होगा वहाँ ढेढ़वाडा तो होगा ही" पर आधारित यह कविता है।