भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रुलाकर चल दिए इक दिन / शैलेन्द्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:10, 24 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: मिला दिल मिल के टूटा जा रहा है नसीबा बन के फूटा जा रहा है.. नसीबा बन के फू...)
मिला दिल मिल के टूटा जा रहा है
नसीबा बन के फूटा जा रहा है..
नसीबा बन के फूटा जा रहा है
दवा-ए-दर्द-ए-दिल मिलनी थी जिससे
वही अब हम से रूठा जा रहा है
अंधेरा हर तरफ़, तूफ़ान भारी
और उनका हाथ छूटा जा रहा है
दुहाई अहल-ए-मंज़िल की, दुहाई
मुसाफ़िर कोई लुटा जा रहा है