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बाज़ार के विरुद्ध / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

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उसके साथ चलने के लिए नहीं हैं पैर
बलात् छीनकर
ले गया वो मेरे पैर
और उन्हीं के सहारे
चढ़ रहा है सुपर मार्केट की सीढि़याँ
चढ़ रहा है मल्टिनेशनल कम्पनी की लिफ्ट
और लोगों की जान में फड़कते हुए
मार रहा है सभ्यता की चेतना में छलाँगें

उसके हाथ भी नहीं
मेरे ही हाथों से खड़ा करता है कार्पोरेट बिल्डिंग
मेरे ही हाथों से घुमाता है कीबोर्ड
मेरे ही हाथ से जोड़ता है, घटाता है और ठीक करता है हिसाब
और रचता है मेरे ही हाथों से
कस्मेटिक अर्थतन्त्र का
चक्कर लगा–लगाकर ख़त्म न होने वाली भूलभुलैया

चेहरा तो है ही नहीं उसका
इसीलिए
बनाया है मेरे ही चेहरे का मुखौटा
वहीं फिट किया है उसने
मेरे ही नाप की कंचे जैसी आँखें

कंचे की आँखों से
आदमी आदमी नहीं दिखता है
दिखता है केवल बाज़ारतन्त्र का गुलाम

उन आँखों से देखने के बाद
एक जैसा दिखता है गोबरैल और आदमी
गोबरैल
जो आजन्म डूबकर रहता है आदिम नाली में
और नाली को ही भाषा मानकर
नाली को ही देश मानकर
उसी की अखण्डता के नाम पर
बजाता रहता है भक्ति संगीत
गाता रहता है राष्ट्रीय गीत

इस वक़्त
नहीं हैं मेरे साथ कर्मशील हाथ
नहीं हैं गतिशील पैर
बनाकर नितान्त निरीह और अकेला
उसने छोड़ दिया है मेरे पास केवल
मुख और मलद्वार के बीच में
एक अगस्ती पेट

खोपड़ी खोलकर
मेरी अन्तिम पूँजी निकालने से पहले
सोच रहा हूँ
उसको पराजित करने वाली
रॉकेट लांचर जैसी
कविता की भाषा

आपको क्या लगता है दोस्तों
क्या सम्भव है बाज़ार को भाषा से परास्त करना?