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उठाकर फिर कलम मैंने / पूजा बंसल

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उठाकर फिर कलम मैनें दबे जज़्बात लिख डाले
दिले नादान पर ठहरे हसीं लम्हात लिख डाले

बहुत हूँ दूर उनसे पर निशानी हर सँभाले हूँ
तलब, आँसू, वो बैचेनी के सब हालात लिख डाले

बिछड़ना तो गँवारा अब नहीं कर पाऊँगी उनसे
करम मुर्शिद अता करना जनम गर सात लिख डाले

विसाले यार में पाकीज़गी देगी दुहाई पर
नहीं मंज़ूर अब 'हम' को पुरानी बात लिख डाले

नहीं उस होश की चाहत हो जिसमें फ़ासला उनसे
ख़ुमारे बेख़ुदी के नाम दिन और रात लिख डाले

गुजारिश कर रही ‘पूजा’ की बंजर सी तमन्नाएं
जुदाई में जले सहरा पे कुछ बरसात लिख डाले