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गत और आगत / बालस्वरूप राही

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जाने वाले का दर्द नहीं मिटता पर
आने वाले का चाव बहुत होता है

चलते चलते जीवन के दोराहे पर
जब कोई मीत बिछुड़ता है आहें भर
लहराता पीड़ा का सागर अंतर में
पर छलक नहीं पाती नयनों की गागर।

लगता जैसे भीतर कुछ टूट गया है
था एकमात्र जो सम्बल छूट गया है
पर पास मोड़ के अगले ही जब सहसा
मिल जाता कोई साथी नया-नया है

स्वागत का भाव निखर आता लोचन में
यद्यपि गहरा उर-घाव बहुत होता है।

जब कोई फूल मुरझा धरती पर झरता
मन बहुत बिलखता, रोता, सिसकी भरता
पर देख नई कलिका खिलती उपवन में
अरमान नया मन में अनजान उभरता।

तुम कह दो शायद यह धोखा है, छल है
पर मानव-मन का एक यही सम्बल है
कुछ अपना-सा लगता हर आने वाला
जो चला गया वह बेगाना है, कल है।

गत के प्रति मन का मोह नहीं मिट पाता
आगत से किन्तु लगाव बहुत होता है।

सौ बार ज़िन्दगी में आता है अवसर
अधरों पर होता हास, नयन में निर्झर
मन के उपवन में संग-संग रहते हैं
उल्लास-भरा मधुमास, अश्रुमय पतझर।

जब तक सांसों का कोष न चुक पाता है
पीड़ा के सम्मुख माथ न झुक पाता है
तुम कितने ही रोदन के बांध लगाओ
गायन का मधुर प्रवाह न रुक पाता है।

मातम के सौ-सौ मौन हरा देने को
सरगम का पहला दांव बहुत होता है।