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बादलों घिरी एक भोर / बालस्वरूप राही

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मेघ के पाहुन बहुत दिन आये
जिस तरह से कामकाजी ज़िन्दगी में
एक अरसे बाद कोई याद आये।

आ बरसे हैं अभी दो चार ही कन
सोनजूही की कली-सा खिल गया मन
धूलिमय परतें दुखों की धुल गईं हैं
स्वच्छ दर्पण-सा निखर आया सहज मन।

लीलने को प्राण की चेतना पिपासा
अब नहीं सम्भव कभी अवसाद आये
मेघ के पाहुन बहुत दिन बाद आये।

अब घिरे हो तो बिना बरसे न जाना
गंध मिट्टी से उठे कौमार्य की जब
देह धरती की बिना परसे न जाना।

भोर से गीले अरुण युग कर पसारे
हर नया अंकुर तुम्हारा मुख निहारे
ये अगर असमय अकारण मर गए तो
बांध लेगा पाप प्राणों को तुम्हारे।

अब रुके हो तो घड़ी-भर और ठहरो
जब तलक कोरक नया सरसे, न जाना
अब घिरे हो तो बिना बरसे न जाना।

शब्द यह सुकुमार पायल का नहीं है
दूर से देखो न घन, छू कर टटोलो
गीत का परिधान मखमल का नहीं है।

है अजब गहरी घुटन वातावरण में
शूल जड़ता का गड़ा गति के चरण में
आत्महत्या सा विवश जीवन हमारा
यन्त्रवतता है सभी के आचरण में।

यक्ष के दूतों, यहां मत रोकना रथ
भुखमरों का देश यह, अलका नहीं है
शब्द यह सुकुमार पायल का नहीं है।