एक रोज़ तो मुझको बिकना ही था आखिर
सुविधा के हाथ नहीं तो यश के हाथ सही
एक मीडियाकर का यश लेकिन क्या होता
किसी गांव कस्बे में मामूली अभिनंदन
नगर पालिका द्वारा दिया गया मानपत्र
किसी सफल ढोंगी के घिसे-पिटे कृपा वचन
चंद चायपानों के छपे हुए आमंत्रण
किसी बड़े नेता-अभिनेता के साथ सही।
लेकिन यह सब भी तो केवल तब हो पता
जब मुझ में मूल्यवान जैसा सब खो जाता
मैं अगर निभा पाता भूमिका विदूषक की
खोखली हंसी हंसता झूठ मूठ रो पाता।
जब न देख पाता मैं चेहरा सच्चाई का
और ग़लत बात मुझे लगती जब बात सही।
सीढियां अगर होतीं मैं ज़रूर चढ़ जाता
पांव जहां रखने थे वहां मगर कन्धा था
मुश्किल था बढ़ सकना बिना कहीं टकराये
राह में तरक़्क़ी की हर घुमाव अंधा था
औरों को मोहरे की तरह चला करते जो
बाज़ी बस उनकी है अपनी तो मात सही।
शूल अगर होते तो रौंद कर निकल जाता
मित्रों के सपने थे बिछे हुए रस्ते में
इसी लिए थोड़ी सुविधाओं के बदले में
बेच दिया अपने को शायद कुछ सस्ते में
मुंह मांगी क़ीमत मिल जाती है कितनों को
ज़्यादातर लोगों सी अपनी औक़ात सही।