भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोलाहल के बाद / बालस्वरूप राही

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:26, 23 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बालस्वरूप राही |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब कोलाहल में बात नहीं खोती
वह घड़ी हमेशा रात नहीं होती

कंकरी एक छोटी सी फैंको तो
गुदगुदी न सह कर जल हंस पड़ता है
लेकिन कोई पत्थर दे मारे तो
धारा का सारा जिस्म उधड़ता है।

आकाश गुंजा कर शोर-शराबे से
कोई अच्छी शुरुआत नहीं होती

यह सच है शब्द ऋचा हो जाते हैं
पर तभी उन्हें जब ऋषिगण गाते हैं
बेकार विवादों में ढल ढल कर तो
वे हद से हद गाली बन पाते हैं।

भाषा बेसुरे ढोल सी बजती है
जब निष्ठा उसके साथ नहीं होती।

चुप रह कर सहते रहे आज तक जो
वाचाल अहंकारों के क्रूर वचन
पा सके मूकता उनकी यदि वाणी
तो तनिक वाकसंयम हम करें सहन।

उनको भी ज़रा प्रितिष्ठित होने दो
जिनकी कोई औक़ात नहीं होती

सन्नाटा नहीं, तोड़नी है जड़ता
वह चाहे भीतर हो या बाहर हो
रचना है ऐसा वातावरण हमें
कांटों का नहीं, फूल का आदर हो

हमको सूरज की तरह दहकना है
जब तक हर स्याही मात नहीं होती।