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कस्तूरी मृग का आत्मकथ्य / बालस्वरूप राही

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काश, मैं होता न कस्तूरी हिरण
क्यों भटकते रात दिन चरण।

फूल ही होता अगर, खिलता कहीं
प्यास का अभिशाप तो मिलता नहीं
गंध मुझ में भी मगर कितनी विफल
वायु सा रखती मुझे प्रतिपल विकल।

आत्मरति के मंत्र से मोहित हुआ
कर रहा अपना स्वयं ही अनुसरण।

पार कितनी मंज़िलें मैं कर चुका
किन्तु चुकती ही नहीं यह बालुका
कुछ पता जलस्रोत का चलता नहीं
और सूरज है कभी ढलता नहीं।

दोहरा संताप यह कैसे सहूँ
कब तलक मांगूं न छाया से शरण।

यह प्रहर कितना विवश निरुपाय है
स्वप्न आहत, चेतना मृतप्राय है
विषमयी कुंठा मुझे डस जायेगी?
सर्पिणी सी पाश में कस जायेगी?

और कब तक जी सकूँगा इस तरह
चाटकर अपने अहम के ओसकण?

हाय, यह मुझको अचानक क्या हुआ
किस अदेखे स्पर्श ने मुझको छुआ
सांस लौटी लौट जाने के लिए
मेघ आये या बुलाने के लिए?

काश, यह कोई बता पाए मुझे
जन्म है मेरा नया यह या मरण?