Last modified on 26 जुलाई 2008, at 13:41

रात के संतरी की कविता / कात्यायनी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:41, 26 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कात्यायनी }} रात को ठीक ग्यारह बजकर तैंतालीस मिनट पर द...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रात को

ठीक ग्यारह बजकर तैंतालीस मिनट पर

दिल्ली में जी. बी. रोड पर

एक स्त्री

ग्राहक पटा रही है।

पलामू के एक कसबे में

नीम उजाले में एक हकीम

एक स्त्री पर गर्भपात की

हर तरकीब अजमा रहा है।

बाड़मेर में

एक शिशु के शव पर

विलाप कर रही है एक स्त्री

बम्बई के एक रेस्तरां में

नीली-गुलाबी रोशनी में थिरकती स्त्री ने

अपना आखिरी कपड़ा उतार दिया है

और किसी घर में

ऐसा करने से पहले

एक दूसरी स्त्री

लगन से रसोईघर में

काम समेट रही है।

महाराजगंज के ईंट भट्टे में

झोंकी जा रही है एक रेजा मजदूरिन

ज़रूरी इस्तेमाल के बाद

और एक दूसरी स्त्री चूल्हे में पत्ते झोंक रही है

बिलासपुर में कहीं।

ठीक उसी रात उसी समय

नेल्सन मंडेला के देश में

विश्वसुंदरी प्रतियोगिता के लिए

मंच सज रहा है।

एक सुनसान सड़क पर एक युवा स्त्री से

एक युवा पुरूष कह रहा है --

मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।


इधर कवि

रात के हल्के भोजन के बाद

सिगरेट के हल्के-हल्के काश लेते हुए

इस पूरी दुनिया की प्रतिनिधि स्त्री को

आग्रहपूर्वक

कविता की दुनिया में आमंत्रित कर रहा है

सोचते हुए कि

इतने प्यार, इतने सम्मान की,

इतनी बराबरी की

आदि नहीं,

शायद इसीलिए नहीं आ रही है।

झिझक रही है।

शरमा रही है।