भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बुजुर्गों से निभाना भूल बैठे / अजय अज्ञात
Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:43, 30 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजय अज्ञात |अनुवादक= |संग्रह=जज़्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बु ुर्गों से निभाना भूल बैठे
अदब से सर झुकाना भूल बैठे
चले आए महानगरों में जब से
सभी रिश्ते निभाना भूल बैठे
उन्हें है जुस्तजू मंज़िल की यारो
जो ख़ुद रस्ता बनाना भूल बैठे
तुम्हारी आँखों मे कैसी कशिश है
इन्हें देखा ज़माना भूल बैठे
दिखावे को मिलाया हाथ हरदम
दिलों से दिल मिलाना भूल बैठे
हुज़ूमे ग़म ने ऐसा घेरा हमको
‘अजय’ हम मुस्कुराना भूल बैठे