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किलै / सुरेश स्नेही
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गौं बंजेगिन मौ बंजेगिन,
पुंगड़ि पातलि सार बंजेगिन,
चट छोड़ि देशु बसग्यां तुम,
गौं मा बांदर कुरस्याला रैगिन,
किलै।
दानों तैं अब क्वी नि पुछदन,
आणों तैं अब क्वी नि माणदन,
बिसरी गैनी अपड़ा रीति रिवाजु सब्बि,
धरति कि पिड़ा अब क्वी निसमजदिन,
किलै।
खुद लगिक भी अब खुदेणु नि क्वी,
बाड़ुलि पराज लगिक रैबार देणुनि क्वी,
अणमिलौ ह्वेगिन अबत यख सब्बि,
मयाला मनखिबि नीन रयां अब क्वी,
किलै।
बूड-बूड्यों कि दानि आख्यंू मा,
बगदा आंसू अर कळकळि साक्यूं मा,
थक्यूं सरेल तौंकि झूर्री मुखड़ि मा,
जान्दा दिन्नु कि डौर जिकुड़ि मा,
किलै।
ब्याखन दां होन्दि छै द्यू-बत्ति जख,
दारू का ठेक्का खुलिगिन वख,
रंगमत ह्वेयां छन छोट्टा छोरा बि,
देवता बि सब्यूं पर गस्यां छन यख,
किलै।