भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क़तरे को इक दरिया समझा / देवमणि पांडेय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:09, 27 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवमणि पांडेय }} Category:ग़ज़ल क़तरे को इक दरिया समझा मैं ...)
क़तरे को इक दरिया समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
हर सपने को सच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
तन पर तो उजले कपड़े थे पर जिनके मन काले थे
उन लोगों को अच्छा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
मेरा फ़न तो बाज़ारों में बस मिट्टी के मोल बिका
ख़ुद को इतना सस्ता समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
बीच दिलों के वो दूरी थी तय करना आसान न था
आँखों को इक रस्ता समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
पाल-पोसकर बड़ा किया था फिर भी इक दिन बिछड़ गए
ख़्वाबों को इक बच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ