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नयी नेह बस्ती बसाने चली हूँ / रंजना वर्मा

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नयी नेह-बस्ती बसाने चली हूँ ।
जो बिछड़े हैं उनको मिलाने चली हूँ।।

उठा दर्द तो हो गया अब पुराना
नयी फिर कोई चोट खाने चली हूँ।।

कसम थी उठाई निभायी न तुमने
कसम को उसी मैं निभाने चली हूँ।।

उजाड़ा चमन था किसी हमनवां ने
नये फूल फिर मैं खिलाने चली हूँ।।

गयीं भूल रस्ता हमारा बहारें
मैं रुठे हुए को बनाने चली हूँ।।

सजाये गये फूल हैं अर्थियों पर
मैं काँटों से आँगन सजाने चली हूँ।।

मिलेगी नहीं आज आँगन में तुलसी
मैं जंगल में तुलसी उगाने चली हूँ।।