भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहो, ओ मरचिरइया कहो / सुशील मानव

Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:19, 19 अक्टूबर 2018 का अवतरण (' {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुशील मानव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> (...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

       (क)
चाँद की लौ पे, औंधी
काजर पारती रात
दुआर सँटे बाग़ में, रोती है मरचिरैया
सामने खड़ा, डरा-सहमा बचपन मेरा
कभी प्यास, कभी पेशाब, कभी उमस
कभी खुजली मचाती घमौरियों के चलते, अक्सर
आधी रात, फुर्र हो जाया करती नींद पलकों के पिंजड़े से
एक अजीब सी आवाज़ कानों से पानी काढ़ती
ये इत्ती रात गए भला कौन बोल रहा अम्मा
मुझे और-कसकर अपनी छाती से, अम्मा कहतीं
‘मरचिरइया रांड़ी अपशकुन रोइ रही बा’
हजार पूछने पे बस इतना कहतीं अम्मा
‘कि उस पर कान न धरो तुम, सो जाओ, एकदम सनामन होइके’
तब लोग-बाग मुझे बताते या कि डराते
मर जाता है वो शख्स, जो धर देता है कान मरचिरइया की रोवाई पे
और तब ले हमेशा डरता रहा मैं, ओ मरचिरइया, तुम्हारी रोउनई की हदस से
आधी रात उचट जाती नींद कभी तो मारे डर के कानों में उँगलिया घुसेड़ लेता मैं
कि कहीं से भी न आए मेरे कानों तक, तुम्हारी रोउनाहट
और लंबी-लंबी साँसे लेता-छोड़ता कंचे सा चित्त से नींद पर निशाना साधता
बाद में जब चलने-फिरने में असमर्थ हुए बाबा
तब अक्सर उनकी आवाज़ पर मन-बे-मन उठता
कभी यूरिन-पाट्स लगाने तो कभी उनका गला तर कराने
खटिया पे खाँसती अम्मा के शब्द कान के कुंए में डुबकी मारते
‘ई राड़ी मरचिरइया जाने केकर जिउ लइके मानी’
उन दिनों रात-रातभर तारों से बतियाते बाबा
मैं डरता, कि वे सुनते तो होंगे मरचिरैया की रोवाई
और उनके बिछोह की कल्पना भर से काँप उठता मैं
और फिर होते सुबह सोते बाबा की नाक पर फिरा-फिराकर उंगुलियाँ
उनकी सांसों का राह-टेह लेता मैं
बाबा के फूलते-पिचकते पेट उनकी सलामती का सिगनल देते
मनोभ्रम जियाये रखने के निमित्त दिमाग तर्क करता
कि आजकल ऊँचा सुनने लगे हैं बाबा
हो, न हो मरचिरइया की रोवाई पहुँच ही न पाती हो, बाबा के कानों तक

सूरज के सत्ता-दमन से छुपकर
छुपी रहती तुम बखरी के पिछवाड़े की दर्राई चियारों में
और फिर एक रोज डरे हुए लोगों ने भरे पिता के कान
कि तुम्हारा हमारे इर्द-गिर्द होना अपशकुन है
कि वे उजड़वा कर तुम्हारी रहनवाई, मुँदवा दें चियार के दर्रे

आओ, उतर आओ ओ मरचिरैया व्यथा की डालियों से
कि आज अपने मरने के मूल्य पे भी
सुनना चाहता हूँ मैं तुम्हारी वेदना का मर्म
तुम्हारे रोने की वजह
बताओ तो मुझे, ओ मरचिरैया किसने बना दिया तुम्हारी आँखों को सदानीरा
तुम्हारी वेदना को सुननेवाले का अभिशाप बताकर
कहो ओ मरचिरइया, क्यों रोती हो तुम रोज-ब-रोज आधी रात में
मैं सुनना चाहता हूँ ओ मरचिरइया, तुम्हारे अनसुने आँसुओं की दास्तान
तुम्हारा सदियों का संताप

    (ख)
मत रोवो, ओ मरचिरइया
मत रोवो
क्या राजा ने कर रखा है जलमग्न तुम्हारा भी जीवन
बढ़ाकर बाँध की ऊँचाई तुम्हारे जीवन की नर्मदा पर?
तुम्हारे यहाँ भी भुखमरी मची है क्या
अपशकुन बताकर काट दिए गए तमाम गूलर-पेड़ों के बरअक्श!
क्या अपना हक़ माँगने गए तुम्हारे खसम पर भी राजा ने दगवा दिए हैं गोलियाँ
अँधेरी रातों में भरा-पूरा यौवन लिए क्या तुम अपना रँड़ापा रोती हो?
कहो, ओ मरचिरइया कहो
जो नहीं कह पाई तुम, आज तलक़ किसी से, कहो
क्या किसी दंगे में फूँक-ताप दिए गये तुम्हारे घर-परिवार, हित-नात?
क्या तुम्हारे भी बच्चों के हिस्से के इलाज के पैसे
खर्च हो गए विधायकों की खरीदारी में ?
कहो तो मरचिरइया​​ क्यों रोती हो तुम
किसी भी कीमत पर आज सुनकर ही मानूँगा मैं
तुम्हारी रोउनई की कविता
तुम्हारी वेदना की कहानी
तुम्हारी आँसुओं का उद्गम
तुम्हारी पीड़ा का उत्स
किसके बाबस्ता तुम रात-ओ-रात विलापती आई
कहो, ओ मरचिरइया कहो