भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पीढ़ियों के दरमियान / उज्ज्वल भट्टाचार्य
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:35, 21 अक्टूबर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उज्ज्वल भट्टाचार्य |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अपनी उम्र की घमंड के साथ
बच्चों से कहता हूं :
जानते हो, कितने सालों का तजुर्बा है
मेरी बेवकूफ़ियों का
ये बाल धूप में नहीं पके हैं,
यह कुर्सी
तुम्हारे लिये नहीं,
मेरे लिये बनी है.
कुर्सी में धंसा हुआ मेरा चेहरा –
उसे देखो –
कुछ सीखो –
तुम्हारा भी वक़्त आएगा,
लेकिन अभी नहीं
बच्चे खड़े-खड़े मुझे देखते रहे,
मुझे देखते रहे
और मुस्कराते रहे,
फिर वो निकल पड़े
बाहर की ओर
अब मैं अकेला हूं,
कुर्सी में धंसा हुआ
बेहद अकेला