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डिजिटल होते भारत में / सुधांशु उपाध्याय

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दुनिया रही बदल
पर डिजिटल होते इस भारत में
औरत खींच रही है हल !

यह सदियों की पीर रही है
औरत की तक़दीर रही है
चाहे जिस भी कोण से खींचें
यह सच्ची तस्वीर रही है,
यही आज का सच है
देखें, कैसा होता कल !

चिड़ियाँ टी० वी० टॉवर पर हैं
और जल रहे उनके पर हैं
चकाचौंध में पागल होकर
बाज़ारों तक पहुँचे घर हैं ,
अब तो यह भी साफ़ हो गया
कुर्सी करती केवल छल !

फिर से नारे उछल रहे हैं
रोज़ मुखौटे बदल रहे हैं
जिन खेतों में फूल थे बोए
उनमें काँटे निकल रहे हैं ,
सिसक रहा है मैला होकर
गंगा जी का जल !

ये श्रमदान की बेटी हैं
ये किसान की बेटी हैं
शर्म करो तुम ज़रा सियासत
हिन्दुस्तान की बेटी हैं ,
सतहें इतना दर्द जी रहीं
कैसा होगा तल !

अच्छे दिन आएँ या जाएँ
साहब के कुक्कुर नहलाएँ
औरत की मजबूरी अब भी
जो पहने वो, वही बिछाएँ
एफ़० डी० आई० ख़ूब आ रहा
औरत हाथ रही है मल !

खींच रही अन्तड़ी के बल से
कहीं पेट के अन्तिम तल से
और ग़रीबी ने ब्याहा है
जान- बूझ कर इनको हल से ,
यह केवल है बाँस जानता
आँतें रहीं निकल !

पेट पे पत्थर बाँध जी रहीं
ये साँसों को साध जी रहीं
दिन तो लाखों देखे लेकिन
दिन केवल एकाध जी रहीं ,
जीना बहुत कठिन है इनका
मरना बहुत सरल !

प्यार किया तो काट दी गईं
यह ’पाँचों’ में बाँट दी गईं
किसी जंगली झाड़ी जैसी
जब चाहा तब छाँट दी गईं ,
इनको अब तो पाना होगा
नाख़ूनों- दाँतों का सम्बल !

हरी नहीं यह डाल हो रही
गरम- उबलता ताल हो रही
चूल्हे पर यह बैठ- बैठ कर
घर की ख़ातिर दाल हो रही ,
लाख कोशिशें होतीं हैं पर
नहीं रहीं अब गल !

दुनिया में जयकार हो रही
तेज मग़र है धार हो रही
नए वक़्त की नई लड़ाई
औरत भी तैयार हो रही ,
अभी जोत लो खेतों में तुम
कल देखोगे बल !

प्यार मिला तो प्यार बनेगी
आँखों में त्यौहार बनेगी
पेट धँसा है , सूखी हड्डी
यह हड्डी हथियार बनेगी
चीख़ों में सब डूब मरेंगे
ख़ामोशी के पल !!