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नागिन / हरिवंशराय बच्चन

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नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तू प्रलय काल के मेघों का

कज्‍जल-सा कालापन लेकर,

तू नवल सृष्‍टि‍ की ऊषा की

नव द्युति अपने अंगों में भर,

बड़वाग्नि-विलोडि़त अंबुधि की

उत्‍तुंग तरंगों से गति ले,

रथ युत रवि-शशि को बंदी कर

दृग-कोयों का रच बंदीघर,

कौंधती तड़‍ित को जिह्वा-सी

विष-मधुमय दाँतों में दाबे,

तू प्रकट हुई सहसा कैसे

मेरी जगती में, जीवन में?

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तू मनमोहिनी रंभा-सी,

तू रुपवती रति रानी-सी,

तू मोहमयी उर्वशी सदृश,

तू मनमयी इंद्राणी-सी,

तू दयामयी जगदंबा-सी

तू मृत्‍यु सदृश कटु, क्रुर, निठुर,

तू लयंकारी कलिका सदृश,

तू भयंकारी रूद्राणी-सी,

तू प्रीति, भीति, आसक्ति, घृणा

की एक विषम संज्ञा बनकर,

परिवर्तित होने को आई

मेरे आगे क्षण-प्रतिक्षण में।

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


प्रलयंकर शंकर के सिर पर

जो धूलि-धूसरित जटाजूट,

उसमें कल्‍पों से सोई थी

पी कालकूट का एक घूँट,

सहसा समाधि का भंग शंभु,

जब तांडव में तल्‍लीन हुए,

निद्रालसमय, तंद्रानिमग्‍न

तू धूमकेतु-सी पड़ी छूट;

अब घुम जलस्‍थल-अंबर में,

अब घूम लोक-लोकांतर में

तू किसको खोजा करती है,

तू है किसके अन्‍वीक्षण में?

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तू नागयोनि नागिनी नहीं,

तू विश्‍व विमोहक वह माया,

जिसके इंगित पर युग-युग से

यह निखिल विश्‍व नचता आया,

अपने तप के तेजोबल से

दे तुझको व्‍याली की काया,

र्धूजटि ने अपने जटिल जूट-

व्‍यूहों में तुझको भरमाया,

पर मदनकदन कर महायतन

भी तुझे न सब दिन बाँध सके,

तू फिर स्‍वतंत्र बन फिरती है

सबके लोचन में, तन-मन में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तू फिरती चंचल फिरकी-सी

अपने फन में फुफकार लिए,

दिग्‍गज भी जिससे काँप उठे

ऐसा भीषण हुँकार लिए,

पर पल में तेरा स्‍वर बदला,

पल में तेरी मुद्रा बदली,

तेरा रुठा है कौन कि तू

अधरों पर मृदु मनुहार लिए,

अभिनंदन करती है उसका,

अभिपादन करती है उसका,

लगती है कुछ भी देर नहीं

तेरे मन के परिवर्तन में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


प्रेयसि का जग के तापों से

रक्षा करने वाला अंचल,

चंचल यौवन कल पाता है

पाकर जिसकी छाया शीतल,

जीवन का अंतिम वस्‍त्र कफ़न

जिसको नख से शीख तक तनकर

वह सोता ऐसी निद्रा में

है होता जिसके हेतु न कल,

जिसको तन तरसा करता है,

जिससे डरपा करता है,

दोनों की झलक मुझे मिलती

तेरे फन के अवगुंठन में!

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


जाग्रत जीवन का कंपन है

तेरे अंगों के कंपन में,

पागल प्राणें का स्‍पंदन है

तेरे अंगों के स्‍पंदन में,

तेरे द्रुत दोलित काया में

मतवाली घरियों की धड़कन,

उन्‍मद साँसों की सिहरन में,

अल्‍हड़ यौवन करवट लेता

जब तू भू पर लुंठित होती,

अलमस्‍त जवानी अँगराती

तेरे अंगों की ऐंठन में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तू उच्‍च महत्‍वाकांक्षा-सी

नीचे से उठती ऊपर को,

निज मुकुट बना लेगी जैसे

तारावलि- मंडल अंबर को,

तू विनत प्रार्थना-सी झुककर

ऊपर से नीचे को आती,

जैसे कि किसी की पद-से

ढँकने को है अपने सिर को,

तू आसा-सी आगे बढ़ती,

तू लज्‍जा-सी पीछे हटती,

जब एक जगह टिकती, लगती

दृढ़ निश्‍चय-सी निश्‍चल मन में।

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


मलयाचल में मलयानिल-सी

पल भर खाती, पल इतराती

तू जब आती, युग-युग दहाती

शीतल हो जाती है छाती,

पर जब चलती उद्वेग भरी

उत्‍तप्‍त मरूस्‍थल की लू-सी

चिर संचित, सिंचित अंतर के

नंदन में आग लग जाती;

शत हिमशिखरों की शीतलता,

श्‍त ज्‍वालामुखियों की दहकन,

दोनों आभासित होती है

मुझको तेरे आलिंगन में!

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


इस पुतली के अंदर चित्रित

जग के अतीत की करूण कथा,

गज के यौवन का संघर्षन,

जग के जीवन की दुसह व्‍यथा;

है झुम रही उस पुतली में

एेसे सुख-सपनों की झाँकी,

जो निकली है जब आशा ने

दुर्गम भविष्‍य का गर्भ माथा;

है क्षुब्‍ध-मुग्‍ध पल-पल क्रम से

लंगर-सा हिल-हिल वर्तमान

मुख अपना देखा करता है

तेरे नयनों के दर्पण में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


तेरे आनन का एक नयन

दिनमणि-सा दिपता उस पथ पर,

जो स्‍वर्ग लोक को जाता है,

जो चिर संकटमय, चिर दस्‍तूर;

तेरे आनन का एक नेत्र

दीपक-सा उस मग पर जगता,

जो नरक लोक को जाता है,

जो चिर सुखमायमय, चिर सुखकर;

दोनों के अंदर आमंत्रण,

दोनों के अंदर आकर्षण,

खुलते-मुंदते हैं सर्व्‍ग-नरक

के देर तेरी हर चितवन में!


सहसा यह तेरी भृकुटि झुकी,

नभ से करूणा की वृष्टि हुई,

मृत-मूर्च्छित पृथ्‍वी के ऊपर

फिर से जीवन की सृष्टि हुई,

जग के आँगन में लपट उठी,

स्‍वप्‍नों की दुनिया नष्‍ट हुई;

स्‍वेच्‍छाचारिण‍ि, है निष्‍कारण

सब तेरे मन का क्रोध, कृपा,

जग मिटता-बनता रहता है

तेरे भ्रू के संचालन में;

नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,

मेरे जीवन के आँगन में!


शेष भाग शीघ्र ही टंकित कर दिए जाएंगे।