Last modified on 23 अक्टूबर 2018, at 22:13

गूंगे बोलते नहीं हैं / उज्ज्वल भट्टाचार्य

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:13, 23 अक्टूबर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उज्ज्वल भट्टाचार्य |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

(गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक को समर्पित)

गूँगों की बस्ती में
अचानक एक शख़्स को बोलना आ गया
और वह चीख़ उठा :
मैं गूंगा हूँ।
मैं तुम्हारा हूँ।

सारे गूँगों ने उसकी ओर देखा
सिर हिलाते हुए उन्होंने कहना चाहा :
नहीं, तुम बोलते हो।
तुम अब हमारे नहीं रह गए,
लेकिन उनके गले से आवाज़ नहीं निकली।
और उस शख़्स को कुछ भी सुनाई न दिया।