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मंगलेश डबराल / उज्ज्वल भट्टाचार्य

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उसकी कविता
प्रतिबद्धता के साथ
शहरी निस्संगता में भटकते हुए
अपने वजूद की तलाश है

उसकी कविता शहरी है
जो पहाड़ से आई है

उसके मुहावरे शहर में पैदा हुए
लेकिन बासी हो जाने पर
उनमें पहाड़ की गन्ध आती है।

शहर में रहते हुए
वह सीख चुका है
कैसे हकलाना छिपाया जाता है
लेकिन जब भी हकलाता है
उसमें से कविता फूट पड़ती है।