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आषाढ़ का एक दिन / उज्ज्वल भट्टाचार्य

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बरसात
धरती को नहला रही है
और धरती
बच्चों की तरह
ताज़गी के अहसास के साथ
सिहर-सिहर उठती
नज़र आती है।

बरामदे के साये से
खुले आसमान में छाए
बादलों को देखता हूँ
सोचता हूँ :
ऐसा ही एक दिन था
ऐसा ही वो दिन था !