भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इक लमहा / उज्ज्वल भट्टाचार्य

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:54, 23 अक्टूबर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उज्ज्वल भट्टाचार्य |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक बून्द-सा लमहा है
मानो कोई सीप उसे निगल जाती है।

फिर करोड़ों साल बाद
किसी समन्दर के किनारे
अगर हमारी मुलाक़ात हो
और हमें वह सीप मिल जाय
तो क्या उसके पेट में
वह बून्द
तब तक
एक मोती बन चुकी होगी ?

सिर्फ़ इतना-सा है
हमारे इस लमहे का मतलब।

(रवीन्द्रनाथ के एक उपन्यास के संलाप से प्रभावित)