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एक सुबह कलकत्ते में / सुरेन्द्र स्निग्ध

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मणि के लिए

मैंने देखा है कलकत्ते में
सूरज को उगते
मणि के जूड़े के गुलाब में

दक्षिण भारतीय साँवली-सी मणि
दोनों हाथ जोड़कर
हर सुबह करती है नमस्कार
और उसके जूड़े के गुलाब में
फूट पड़ता है
सुबह का नन्हा सूरज

मणि थामती है चाय का कुल्हड़
चाय में भरी होती है ऊष्मा
नये उगे हुए
सूरज की ताज़ा किरनों की
मणि की धवल दन्त-पँक्तियों
के बीच
यही सूरज बाँटने लगता है
एक अपूर्व चमक

मणि घूम रही है
हमारे साथ
मजदूर-बस्तियों में
स्वागत में बिछी हैं वहाँ
हजारों-हजार उदास आँखें
मजदूरों के कठोर हाथों में
उगे हुए हैं
हज़ार-हज़ार ताज़े और कोमल गुलाब
मचल रहे हैं सारे गुलाब
हमारे हाथों तक आने के लिए
करने के लिए हमें
श्रम की ख़ुशबू से
सराबोर !

मैं देख रहा हूँ
एक विक्षिप्त आदमी को
जूट मिल की गेट पर
घूर रहा है हमें लगातार
उसने भी अपने मैले-कुचैले हाथों में
थाम रखा है एक स्वच्छ
और ताज़ा गुलाब
उसकी आँखें कर रही हैं पीछा
मेरा
उनका
और सबका
कि उसकी आँखें थम गई हैं
जनकवि बाबा नागार्जुन पर

फिर उसके कण्ठ से फूटता है
ठहाके का सैलाब
जनकवि ने
एक मधुर मुस्कान में
परोस दिया है ठहाके का जवाब
झुक गई हैं
धीरे-धीरे उस आदमी की आँखें
फिर उठती हैं वे आँखें
और इस बार वे टँग गई हैं
मणि की आँखों में
भय और घृणा की लहरें
दौड़ गई हैं साँवले चेहरे पर
मुस्कुराता है वह आदमी
शान्त
संयत
चुपचाप बढ़ाता है गुलाब
मणि की ओर

दोपहर में
अचानक हम देखते हैं
सूरज टँगा हुआ है
मणि के जूड़े के गुलाब में !
(यह वही गुलाब है
उस विक्षिप्त आदमी के
मैले-कुचैले हाथ का
स्वच्छ और ताज़ा गुलाब)