भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्वप्न / अल-सादिक अल-रादी / विपिन चौधरी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:02, 10 दिसम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अल-सादिक अल-रादी |अनुवादक=विपिन च...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कविता
तुम हरे रंग की देह
हो सकती हो
हो सकती हो तुम
एक भाषा
पँखों और ख़ुद को संग लिए
भटकता जिसमें मैं,
बन जाओ न मेरी जीभ की प्रेरणा
ताकि बन सकूँ मैं
अपने कबीले की आवाज़ का चरागाह
अगरचे वे खामोश
अस्थिर और अकेले हैं
देख रहा हूं मैं
नहीं हो तुम हरे रंग की देह
मोल-भाव करने में माहिर उस्ताद नहीं हो
न ही हो कोई गम्भीर विचार
कविता तुम तो हो
प्रलाप के इन्तज़ार में
रहने वाली मेरी स्मृति
अँग्रेज़ी से अनुवाद : विपिन चौधरी