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औरत / रजनी तिलक

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औरत
एक जिस्म होती है

रात की नीरवता
बन्द ख़ामोश कमरे में
उपभोग की वस्तु होती है।

खुले नीले आकाश तले
हर सुबह
वो रुह समेत दीखती है।

पर डोर होती है
किसी आका के हाथों।

जिस्म वो ख़ुद ढोए फिरती है।