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उठाऊँ बोझ कैसे ज़िन्दगी का / राम नाथ बेख़बर

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उठाऊँ बोझ कैसे ज़िन्दगी का
नहीं जब साथ मिलता है किसी का।

कहाँ है ख़ौफ़ मुझको तीरगी का
मैं वाहक बन गया हूँ रौशनी का।

तुम्हारे हुस्न से मतलब कहाँ है
मैं कायल हूँ तुम्हारी सादगी का।

पड़ा है बोझ दिल पर ग़म का लेकिन
कोई मौसम नहीं मेरी ख़ुशी का।

तुम्हारी यादों के साये तले अब
लगा है रोग मुझको रतजगी का।

मुसलसल रोज़ ही अब बढ़ रहा हूँ
मैं दुखड़ा हूँ किसी गुज़री सदी का।

हमारे खेत प्यासे ही रहे पर
समन्दर पी गया पानी नदी का।

नहीं कोई हुआ मेरा अभी तक
कहाँ हूँ बेख़बर मैं भी किसी का।