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वही नस्ले-नौ सकपकाते हुए / ज्ञान प्रकाश पाण्डेय
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वही नस्ले-नौ सकपकाते हुए,
लजाते हुए कुछ छुपाते हुए।
वही रात-दिन की है मशरूफ़ियत,
वही दोस्त हैं रोते-गाते हुए।
अभी भी वही ऊँघते रास्ते,
वही राहरौ डगमगाते हुए।
किनारों में अब भी है आबे रवाँ,
समंदर वही सर उठाते हुए।
वही शोर आलूद अमराइयाँ,
वही बच्चे पत्थर उठाते हुए।
अभ भी मुसलसल चले जा रहे सब,
वही आबले झलमलाते हुए।
हैं अब भी वही चाय की चुस्कियाँ,
वही लोग, बातें बनाते हुए।
अभी भी वही खोई-खोई सी दुनिया,
वही लोग,सिगरिट जलाते हुए।