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गोधरा में कीर्तन / विजयशंकर चतुर्वेदी

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गोधरा में हो रहा है कीर्तन
ध्वजाएँ लहरा रही हैं खिड़कियों पर
स्टेशन पर हो रहा है
घर-घर हो रहा है कीर्तन

मैं चढ़ता हूँ अवाक रेल के एक डिब्बे में
कूद पड़ता हूँ
वहाँ और ज़ोर से हो रहा है कीर्तन
उतर रहा है ईश्वर ध्वजाओं के सहारे
पर्वतारोहियों की तरह
खिड़कियों पर
ध्वजधारी कर रहे हैं तप
यात्रियों की रेल-पेल में
चकित खड़ा है ईश्वर

दमें का रोगी प्रसाद खा रहा है हतप्रभ
यात्री शामिल हो रहे हैं मण्डली में
गा रहे हैं भजन आँखें मून्दे
बढ़ रहे हैं स्वर्ग की ओर सशरीर
बढ़ रही है ट्रेन
मैं भी शामिल हो गया हूँ कीर्तन में भयातुर

मोक्ष प्राप्त कर रहे हैं साधुगण
डिब्बे के भीतर कूद रहे हैं उन्मत्त
वे भूल गए हैं शेयरों के भाव
कमीशन भी नहीं रहा याद उन्माद में
बढ़ रहे हैं इतिहास को ध्वस्त करने
दानव हो रहे हैं मानव
मुस्कुरा रहा है ईश्वर
बीच डिब्बे में।