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घर का अनुशासन / विजयशंकर चतुर्वेदी

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हर घर की एक व्यवस्था होती है
जिसे स्वीकारना होता है हर सदस्य को
सबको जानना होता है
कब आता है नल में पानी
जाता है कब
कहाँ रखे जाते हैं जूते
किस पतीले में राँधा जाएगा चावल
कितनी बड़ी बटलोई में पकेगी दाल

बहुओं के भी बँटे होते हैं काम
किस दिन कौन तैयार करेगी नाश्ता
किसके ज़िम्मे होगा दोपहर का भोजन

किस बटन से चलता है पंखा
किससे टी० वी०
किससे जलती है ट्यूबलाइट
कौन-सा स्विच मारता है करण्ट
सबको होता है पता

पिता कितने बजे दाख़िल होंगे बैठक में खाँसकर
पूजाघर से कब निकलेगी माँ
यह भी होता है लगभग तय

मेहमानों को भी सीखना ही पड़ता है यह सब
ध्यान रखना पड़ता है कि किस कमरे में प्रवेश है निषेध
कितने दिन तक होती रहेगी मेहमाननवाज़ी
किसके साथ करना है कितनी ठिठोली
इसका भी रखना पड़ता है ख़याल

बेटियों को होना पड़ता है आदी
सबकी झिड़कियाँ सुनने के लिए वक़्त-बेवक़्त
झगड़ना पड़ता है गाहे-बगाहे माता-पिता को
कि बेटे नहीं रहते घर का ठीक से ख़याल

घर की व्यवस्था में सबसे पहले शामिल होते हैं बच्चे
फिर शुरू होता है उनके बुढ़ापे का सफ़र

हर घर का होता है एक अनुशासन
जैसे चन्दा के खिलने का
सूरज के उगने का
पृथ्वी के घूमने का
जब टूटने लगता है यह अनुशासन
तो घर में मचने लगती है उथल-पुथल।