मधुर मिलन / राजराजेश्वरी देवी ‘नलिनी’
गोधूली के अंचल में, छिप गयी सुनहली ऊषा।
दिनकर चल दिये विदा हो, खुल गयी गगन-मंजूषा॥
सूने अम्बर पर बिखरीं निशि की विभूतियाँ सारी।
राका-राकेश-मिलन की आयी थी मधुमय वारी॥
मुसकाती इठलाती-सी कामिनी विभावरि आयी।
जग-शिशु मुख पर उसने निज अल कावलियाँ बिखरायीं॥
वह सूनेपन की रानी सूनापन लेकर आयी।
सारी संसृति में उसकी मुसकान मनोहर छायी॥
निज वैभव पर गर्वित हो हँसती थी रजनी-बाला।
आये फिर कर में लेकर निशिनाथ सुधा का प्याला॥
सारी संसृति में शशि ने स्वर्गीय सुधा ढलकायी।
चहुँ ओर असीम अलौकिक अनुपम मादकता छायी॥
करता था जग अवगाहन शशि-सुधा सुभग लहरों में।
उल्लास असीम भरा उन आह्लादों के प्रहरों में॥
गाती निशि निज वीणा पर नीरव संगीत निराला।
श्रुति-पुट में रस सरसा वह जग को करता मतवाला॥
मेरा हिय उलझ रहा था उद्गारों की उलझन में।
रह-रह पीड़ा होती थी अभिलाषा के कंपन में॥
आशाआंे के फूलों की बिखरी पंखड़ियाँ प्यारी।
उच्छ्वासों के झोकों में उड़ गयी आह! वह सारी॥
व्यथा सुपुता करवँट से हो उठी प्राण में तड़पन।
प्राणों की पागल पीड़ा से हुआ आह! मूर्छित मन॥
तब शान्तिमय निद्रामम गीली पलकों पर छायी।
इस करुण दशा पर मानों उसको थी करुणा आयी॥
दे शान्ति मुझे उसने यों स्वप्नों के साज सजाये।
मेरी आशाओं के धन मुझको उसने दिखलाये॥
निशि की काली अलकों में जो श्यामल वेष छिपाये-
वह करुणामय थे मेरे मृदु स्वप्न-जगत् में आये।
सुख सीमा हुई अपरिमित देखा जब प्रिय मानस-धन।
कृतकृत्य हो गयी करके करुणामय का शुभ दर्शन॥
उपमा क्या हो सकती है कोई मेरे उस सुख की।
असमर्थ जिसे कहने में हो जाता है सत्कवि भी॥
उन पद पह्मो मंे तत्क्षण निज मानस पुष्प चढ़ाया।
बनकर उपसिका स्वयमपि उनको आराध्य बनाया॥
उस क्षण-सुख में जीवन का सारा उल्लास खिला था।
उल्लासों के अंचल में पीड़ा का सार छिपा था॥
ऊषा के अवगुंठन में छिप गया सुनहला सपना।
मेरे सुखकी लाली ले शृृंगार किया हो अपना॥