भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दहेलिया / पॉल वेरलेन / मदन पाल सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपनी दत्तक बहन एलिज़ा के प्रेम में असफल होने की पर


भारी, उन्मत कुच लिए गणिका, निर्मल नहीं है उसके भूरे नेत्र
धीरे-धीरे खुलते हैं जैसे बैल की आँखें
और तुम्हारा कबन्ध दमकता है निर्दोष संगमरमर की तरह,

खिले है चारों और तुम्हारे लकदक पुष्प
पर सौरभहीन, और तुम्हारी शान्त सुन्दरता लगती है
निर्दोष धागों से बनी खुली चिकनी चादर - निर्जीव !

तुम महसूस नहीं करतीं देह का वह आस्वाद
वह मदमस्त करने वाली, फैलती एक मादल सुवास जो कमतर है
उस पुआल की कुदरती गन्ध से, और अगर की ख़ुशबू से बेपरवाह,

और तुम हो एक दहेलिया के पुष्प की तरह
जैसे एक सजीला गर्वित राजा --एक बुत जो उठाता है अपना मस्तक निष्ठुर भव्यतता से
ख़ुशबूदार मोगरा के फूलों के बीच
जो है रंगीन, भव्य, उत्तेजक पर ख़ुशबूहीन !

मूल फ़्रांसीसी से अनुवाद : मदन पाल सिंह