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निरन्तर बज रहा हूँ / सुरेन्द्र स्निग्ध

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मेरी कमज़ोर छाती पर
तुमने खिला दिए हैं
चुम्बनों के असंख्य रंग-बिरंगे फूल !

तुम्हारे थरथराते होठों की
                      ऊष्मा
मेरी कोशिकाओं में
                           मार रही हैं ठाठें
                            गर्म ख़ून बनकर

मेरी साँसों में
घुली हुई हैं तुम्हारी साँसें
मेरे सम्पूर्ण शरीर में
रक्त के साथ
एक स्वर्गिक आवेग से
नाच रही हो तुम
बनकर संगीत

इसी संगीत ने
मुझमें भर दिया है नया जीवन
जीने की अदम्य अभिलाषा
संगीत का साज बनकर
निरन्तर बज रहा हूँ मैं।