भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शब्द और रंग - 2 / सुरेन्द्र स्निग्ध

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:05, 13 जनवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेन्द्र स्निग्ध |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बीत गई न रात
हाँ, बीत ही गई
देखिए न, थोड़ा उधर देखिए
पंछियों का एक बड़ा-सा झुण्ड
समुद्र की लहरों को छूता हुआ
अभी-अभी
गुज़र गया है पूरब की ओर
घोल गया है लहरों में
हलचल और कलरव का संगीत
फैला गया है चारों ओर
इसी संगीत की ख़ुशबू

मछुआरे पैठ गए हैं
समुद्र में
छोटी-छोटी नौकाओं के साथ
और
सूरज के उगने के पहले की लाली
बिछ रही है लहरों पर
निस्तेज हो रहा है
रात भर का चला चाँद

उठिए,
चलिए अपने-अपने कमरे में
उठ रहे होंगे

साथ के लड़के और लड़कियाँ

कहेंगे पागल हैं हम लोग
छत पर बैठे रह गए सारी रात
और भी कुछ कह सकते हैं
और भी कुछ......।