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डोंगी / सुरेन्द्र स्निग्ध

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इतना उदास
बहुत कम रहता हूँ मैं
गोपालपुर के निर्जन
समुद्र के किनारे
सुदूर उत्तर की ओर
बढ़ता चला गया हूँ अकेले

दूर एकदम दूर
होता चला गया हूँ साथ के
लड़के-लड़कियों से ।
किसी ने शायद ही समझा हो
मेरा दर्द

किसी ने शायद ही महसूस किया हो
मेरे अकेलेपन का रहस्य ।

बैठ गया हूँ
एक छोटी-सी डोंगी पर
जो समुद्र के हृदय की
नापकर गहराई
लेटी है श्लथ
किनारे की बालुकाराशि पर
जो थपेड़ों के संग
जूझकर
सोई है तट पर
स्पन्दनहीन ।

बैठ गया हूँ मैं
इस कृशकाय डोंगी पर
महसूस करने के लिए
सागर की अनगिन तरंगें
”मत बैठिए, इस पर बाबू,
मत बैठिए“-
बोलता है एक मछुआरा ।

“क्यों भाई,
क्या मेरे बैठने से टूट जाएगी यह?“
-उद्विग्न होकर पूछता हूँ मैं।

”हाँ बाबू, हाँ -- टूट सकती है बेचारी,
क्या जान है इसमें
समुद्र की लहरों से जूझते-जूझते
जर्जर हो गई है यह।”

-- कैसे टूट सकती है यह !
जो समुद्र की लहरों से लेती रहती है टक्कर
जो माप आती है
इसके उद्विग्न हृदय का छोर
सोचकर और भी गहरी उदासी
पसर रही मेरे चारों ओर ।