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समाधान / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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क्या कारण है कि तुम्हें
अपना गाँव याद नहीं आता
या तुम्हारा गाँव तुम्हे याद नहीं करता
या कि वह मौसम
जो तुम दोनों को एक दूसरे कि याद दिलाता था
उकसाता था
एक दूसरे से मिलने के लिए
आजकल नहीं आता ?
पता नहीं दोष किसका है
दोष तुम्हारा,
तुम्हारे गाँव और मौसम
तीनो का हो सकता है
त्रिभुज एक भुज से नहीं बनता
सोचो, क्या तुम्हारा ही दोष कम है
कि पद,प्रतिष्ठा और पैसे कि गारुड़ी बुभुक्षा ने
तुम्हारी आत्मा कि उत्कृष्ट संवेदना को
बदल दल है आज पण्य संबंधो में
और आज तुम ऐसे तिलस्मी महल में कैद हो
जहाँ बदचलन आधुनिकता
अपनी साड़ी निर्लज्जता के साथ
तुम्हारे पलंग पर बिछी है
और तुम ययाति कि तरह
किसी ऋषि का शाप ढोते
भयानक,वृध्त्व कि दहसत झेल रहे हो,
सारे संबंधो कि स्वीकृत पवित्रता से दूर
सुरा में डूबे हुए
अगणित सुन्दार्यों से खेल रहे हो,
भीत हो शुक्राचार्य कि बेपनाह उपलब्धियों से
अकाल वृद्ध बने
प्रतिबद्ध हो भोगवादी दर्शन की
बदहवास शर्तों से
शीशे की तरह
चटख गए हो बाहर और भीतर से
और एक अभिशप्त जीवन जीने के लिए
स्यात मजबूर हो
चिकनाई शीतल जल से नहीं घुलती

सोचो तुम्हारा गाँव तुम्हे याद क्यों नहीं आता ?
वह गाँव जिसके तीन तरफ से गंगा बहती थी
जहाँ उच्छल उद्दाम प्रेम खेतों में पसरा पड़ा था
जहाँ उत्कट जिजीविषा प्रत्येक पौधे से फूटती थी
जहाँ तुम्हारे बचपन के दुधमुँहे शब्द गीत बन गूंजते थे
जहाँ पंचफोरन की छौंकसी महकती भाभी की ठिठोलियाँ थी
प्रणय भंग पीड़ा मर्मज्ञों की बोलियाँ थी
प्रियतमा की पवित्र मुस्कान सी मादक कजली
और सोहर थे
लचारी और गारी थी
जहाँ की दुनिया तुम्हारी इस दुनिया से न्यारी थी
जहाँ समवेत रमणीय की आकुल स्वर लहरी थी
जहाँ दिलों में आत्मीयता अति गहरी थी
जहाँ प्रत्येक घर की देहरी पर दुआएं थी,
गहरी ममता की शाल भंजिकाएं थी
कच्चे पक्के मकानों में,
मडई में,झुग्गी झोपड़ियों में
जहाँ कई जातियां एक परिवार की तरह
रहती हुई,सहती हुई
बहती हुई जीवन नदी थी
दोष तुम्हारा ही नहीं
तुम्हारे गाँव का भी है
आंधी से साठगाँठ करती
आमों की बौराई छाँव का भी है
जानते हो
आजकल गाँव,गाँव नहीं रहा
शहर बन गया है
चम्बल की घटी सा
हर घर तन गया है
और अब खेतों में फसलें नहीं
बंदूकें उगती है
सत्ता की चिड़ियाएँ अस्मत चुग रही हैं
हरियाली तटों पर दम तोड़ती है
महंगाई कृषक की किस्मत फोड़ती है
बेशर्म दुश्मनी,स्वजनों का लहू पी रही है
मानवता अहिल्या बनकर जी रही है
प्रेम के दरवाजे पर
'प्रवेश निषेध ' की तख्ती है
परस्पर मिलकर रहने की सख्ती है
तीज त्यौहार मनाने के लिए
अब कोई इकट्ठा नहीं होता .
अलावों के पास न तो चौपाल जमती है
और न ही हंसी ठट्ठा होता
भाई चारे का नाम मिट गया है
युधिष्ठिर,दुर्योधन के हाथों पिट गया है
सहअनुभूति की सूखी नदी है
आजकल हर एक नेकी, बदी है
मिथ्याभिमान गरजता चालीसा है
प्रत्येक धूर्त आज गाँधी है,ईसा है
अपनत्व का अषाढ़ सूखा पड़ा है
अशिक्षा अज्ञान का बिजूका खड़ा है
सिक्षा अनुभवों में नही,स्कूलों में मिलती है
जूही की कलि श्मशानों में खिलती है
चतुर्दिक अंधविश्वासों की कई जमी है
खुशहाली का नाम नहीं,केवल कमी है
प्रतिहिंसा की आग में सम्बन्ध जल रहे हैं
विश्वासघात के सांप आस्तीनों में पल रहे हैं
पनघट रुनझुन बिन सूना पड़ा है
न जाने किस संस्कृत का नमूना खड़ा है
तंगदिली की दुकानें चल रही हैं
भाई की उन्नति भाई को खल रही है
जातिवाद के लाक्षागृह में विवेक जल रहा है
अब तो गाँव भारतीय संस्कृति का मसखरा बन गया है
बुराई के तराजू का सर्वमान्य बटखरा बन गया है
दोष तुम्हारा और तुम्हारे लापता गाँव का ही नहीं
उस मौसम का भी है
जो अपने समय पर नहीं आता
या आजकल जो मरसा गया है
लेकिन मौसम ......
मौसम तो हमारे मनोभावों का परिणाम है
स्वतंत्र इकाई नहीं,वृत्ति सापेक्ष है
एक मनः स्थिति विशेष है,
जो हमारे मनोभावोंमनोविकारों के साथ
आता है, जाता है,बनता है,बिगड़ता है
तभी तो एक ही वस्तु संयोग से सुखद और
वियोग में दुखद प्रतीत होती है
यानि मौसम मनुष्य के अधीन है
जो हमें प्रिय है वह स्वर्ग है
जो अप्रिय है,नरक है
यदि मनुष्य के संकेतों पर
निर्भर है मौसम का आना जाना
तो मेरे दोस्त !
वह मौसम तुम क्यों नहीं बुलाते
जो पहले ठीक समय पर आता था
तुम्हे 'भूत' बनने से बचाता था
तुम्हे तुम्हारी मिटटी से जोड़ता था
संवेदना की परती को गोड़ता था
सच कहता हूँ मित्र !
वह तुम्हारे लापता गाँव को खोजेगा
तुम्हारे अमूल्य संवेदनों को सहेजेगा
आओ कोशिस करो
फिर वही सावनी हरियाली लाने की
कोशिश से सबकुछ संभव है
आओ एक बार फिर कोशिश करो
तुम्हारा,तुम्हारे गाँव और तुम्हारे गाँव का समीकरण
स्वयं हल हो जायेगा
और तब तुम्हारे बीच का हिमालय
स्वयम गल जायेगा
आओ कोशिश करो
कोशिश करो कोशिश करो