Last modified on 19 जनवरी 2019, at 23:06

सुबह सुबह कांधो पर बस्ता टांगे / कपिल भारद्वाज

Sandeeap Sharma (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:06, 19 जनवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कपिल भारद्वाज |अनुवादक= |संग्रह=स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सुबह सुबह कांधो पर बस्ता टांगे,
स्कूल जाते बच्चे,
सुन्दर तो बहुत लगते हैं,
बहुत मनभाव दृश्य होता है,
किसी बच्चे को स्कुल जाते देखना,
अचानक से मन में होने लगती है गुदगुदी,
और आँखों की बढ़ जाती है रौशनी,
हालाँकि हम सिर्फ वही देखते हैं जो हमे अच्छा लगता है,
उसी स्कुल जाते बच्चे की बहुत सी बातों को देखकर भी,
न देखने का अभ्यास हो चला है हमें ।

हमें देखना चाहिए,
उसके कांधो पर विकृत इतिहास लदा है,
उसके बैग में है कैक्ट्स के कांटे, एक शाश्वत थकी हुई उदासी और बासी पड़े फूलों की गंध,
कभी-कभी उसका उछलना-फुदकना,
बचकानी चपलता का अहसास करवाता प्रतीत होता है हमें,
विषाद और अवसाद की मिलीजुली,
गन्ध को पहचानकर भी झटक दिया जाता है,
हमें मालूम है उसकी मनोस्थिति,
मगर हम अभ्यस्त हो चले हैं किसी लहलहाते उद्यान की,
उजडियत और वीरानगी देखने के ।