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आसमान के पार स्वर्ग है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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आसमान के पार स्वर्ग है
सोच गया घर से
जाकर देखा वहाँ अँधेरा दीपक को तरसे

जीवन का पौधा उगता हिमरेखा के नीचे
धार प्रेम की जहाँ नदी बन धरती को सींचे
आसमान से आम आदमी
लगता है चींटी
नभ केवल रंगीन भरम है
सच्चाई मिट्टी

गिर जाता जो अंबर से वो मरता है डर से

अंबर तक यदि जाना है तो चिड़िया बन जाओ
दिन भर नभ की सैर करो पर संध्या घर आओ
आसमान पर कहाँ बसा है
कभी किसी का घर
ज्यादा जोर लगाया जिसने
टूटे उसके पर

फैलो, काम नहीं चलता ऊँचा उठने भर से