भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आसमान के पार स्वर्ग है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
आसमान के पार स्वर्ग है
सोच गया घर से
जाकर देखा वहाँ अँधेरा दीपक को तरसे
जीवन का पौधा उगता हिमरेखा के नीचे
धार प्रेम की जहाँ नदी बन धरती को सींचे
आसमान से आम आदमी
लगता है चींटी
नभ केवल रंगीन भरम है
सच्चाई मिट्टी
गिर जाता जो अंबर से वो मरता है डर से
अंबर तक यदि जाना है तो चिड़िया बन जाओ
दिन भर नभ की सैर करो पर संध्या घर आओ
आसमान पर कहाँ बसा है
कभी किसी का घर
ज्यादा जोर लगाया जिसने
टूटे उसके पर
फैलो, काम नहीं चलता ऊँचा उठने भर से