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एक धुरी पर नाच रहा पंखा / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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कैसे एक धुरी पर
नाच रहा पंखा

दिनोरात चलता रहता है
नींद चैन त्यागे
फिर भी अब तक नहीं बढ़ सका
एक इंच आगे

फेंक रहा है
फर-फर-फर-फर
छत की गर्म हवा

इस भीषण गर्मी में
करता बातें ही बातें
दिन तो छोड़ो
मुश्किल से अब
कटती हैं रातें

घर से बाहर लू चलती है
जाएँ कहाँ भला
 
लगा घूमने का
बचपन से ही इसको चस्का
आओ हम सब मिल जुलकर
स्विच ऑफ़ करें इसका

व्यर्थ जा रही बिजली की यह
एकमात्र इच्छा