भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रुक गई बहती नदी / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:05, 21 जनवरी 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काम सारे ख़त्म करके
रुक गई बहती नदी
ओढ़ कर
कुहरे की चादर
देर तक सोती रही

सूर्य बाबा
उठ सवेरे
हाथ-मुँह धो आ गये
जो दिखा उनको
उसी से
चाय माँगे जा रहे

धूप कमरे में घुसी तो
हड़बड़ाकर उठ गई
 
गर्म होते सूर्य बाबा ने
कहा कुछ धूप से
धूप तो सब जानती थी
गुदगुदा आई उसे

उठ गई
झटपट नहाकर
वो रसोई में घुसी

चाय पीकर
सूर्य बाबा ने कहा
जीती रहो
खाईयाँ
दो पीढ़ियों के बीच की
सीती रहो

मुस्कुरा चंचल नदी
सबको जगाने चल पड़ी