Last modified on 30 जुलाई 2008, at 23:10

कि अपनी हज़ार सूरतें निहार सकूँ / अरुणा राय

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:10, 30 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुणा राय }} जिस समय <br> मैं उसे <br> अपना आईना बता रही थी <br> द...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जिस समय
मैं उसे
अपना आईना बता रही थी
दरक रहा था वह
उसी वक़्त
टुकड़ों में बिखर जाने को बेताब सा
हालाँकि
उसके ज़र्रे-ज़र्रे में
मेरी ही रंगो-आब
झलक रही थी
पर मैं क्या कर सकती थी
कि वह आईना था
तो उसे बिखरना ही था
अब भी मैं उसकी आँखें हूं
और हर ज़र्रे से
वे आँखें
मुझे ही निहार रही हैं
पर क्या कर सकती हूँ मैं
कि मैंने ही बिखेर दिया है उसे
कि अपनी हज़ार सूरतें
निहार सकूँ...