सोफ़िया! जिसे मैं कम ही पुकारता था नाम से,
और काँपता था इसे लिखते हुए; ओ मेरी दोस्त
हो गई जो बहुत दूर मुझसे! एक सुबह मैंने स्वप्न देखा
कि हाथ में हाथ डाले हम टहल रहे हैं
सूर्य की किरणों से फिसलन धरी राहों पर:
जबकि बहुत साल गुज़र गए हैं,
और पार कर लिए गए हैं कितने समंदर और देश
और बहुत (आह, बहुत-बहुत) कुछ हम दोनों ने सहा है
और हम हाथ में हाथ लिए अपनी कहानियाँ बता रहे हैं.
और अब तुम्हारा हाथ फिसल गया है मेरे हाथ से,
और यह ठंडा पत्थर मरोड़ता है इसे;
मैं एक स्वप्न देखता हूँ
क्या तुम भी देखती हो?
और क्या हमारे स्वप्न एक ही हैं..?