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प्रीत की मंजिल / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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बस! प्रीत खींच कर लाती है,
हर पंथी को इस मंजिल पर।
पथ पर बढ़ जाता है पंथी,
आशा कुछ पाने की लेकर।

बच कर आना, आने वालों!
पथ पर कंटक की झाड़ी है।
चाँदनी चूमने के पहले,
चूमो! पथ की चिंगारी है।
 
पाथेय प्यार का लेने पर,
पंथी को जलना होता है।
लैला पाने के लिए मगर,
मजनू को चलना होता है।

रे! मरू प्रदेश में मजनू को,
लाती लैला की याद पकड़।
बस! प्रीत खींच कर लाती है,
हर पंथी को इस मंजिल पर।

मंजिल पाने के पूर्व यहाँ,
आ रही चुनौती बार- बार।
निर्मम शीरी ने देख लिया,
कितने फरहादों की पछाड़।

दीपक पाने की आशा में,
हर रोज पतंगे जलते हैं।
दिल की मजार पर लैला के,
मजनू के प्राण निकलते हैं।
 
फिर भी दीपक पर मरते हैं,
लाखों परवाने जल- जलकर।
बस! प्रीत खींच कर लाती है,
हर पंथी को इस मंजिल पर।

लख-लाख मोहब्बत वालों को,
यह मंजिल कैसे पलती है?
यह प्रीत-पंथ है ओ राही!
दुनिया ऐसे ही चलती है।

जल-जल कर स्वर्ण चमकता है,
जलने का नाम जवानी है।
फिर प्रीत नगर के राही का,
पथ पर रुकना नादानी है।

दिल में मंजिल की कसक रहे,
हँस पंथी आँसू पी-पीकर।
बस! प्रीत खींच कर लाती है,
हर पंथी को इस मंजिल पर।

हर जगह प्रीत की मंजिल पर,
बढ़ने वाले मतवाले हैं।
प्रेमी की प्यास न कम होगी,
आँसू पी जाने वाले हैं।
 
राही के प्रीत नगरिया की,
डगरें जानी पहिचानी सी।
मजनू को खोज रही अब भी,
लैला बनकर दीवानी सी।

रे! यही प्रीत की मंजिल है,
जो है सदियों से अजर-अमर।
बस! प्रीत खींच कर लाती है,
हर पंथी को इस मंजिल पर।