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कला का अपमान / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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सम्भालो कलम को कला के पुजारी,
कला पर मुसीबत चली आ रही है!

लिखोगे कलाकार कबतक बताओ,
सृजन के अधर पर जलन की पहेली!
अंधेरी निशा में बुझाते हो दीपक,
चली जा रही है किरण की सहेली!

जगाओगे युग को नवल प्राण दे कब?
धरा की जवानी ढ़ली जा रही है!

निकलती हैं आहें, उमड़ती घटायें,
मिटी जा रही है कला की निशानी!
कलाकार कैसा? न जिसकी कलम पर,
मचलती है युग के हृदय की कहानी!

कला चन्द पैसों की माया में पड़कर,
किसी के इशारे छली जा रही है!

कि वीणा के तारों में वह स्वर नहीं है,
जो चन्दा ही डूबा तो अम्बर नहीं है!
सुमन में अगर है न खुशबू तनिक भी,
तो रंगों में उसके असर कुछ नहीं है!

कलाकार निकलो हवेली से अपनी,
ग़रीबों की कुटिया जली जा रही है!

जली जा रही है कहाँ किसकी कुटिया,
हवेली को इसकी खबर ही नहीं है।
कुटी में न मिलता नमक रोटियों पर,
यहाँ बिस्कुटों पर कलम चल रही है।

कि कुटियों में ग़म के बने कितने चूल्हे,
हवेली में मछली तली जा रही है।

कला ने न अबतक के शोषण लिखा है,
कि लिखता रहा है कलाकार कसकर,
कला की विजय हो कलाकार हम हैं,
बिना घाव के ही लगाते हो नश्तर।

अगर यह कला है तो ले लो सलामी,
बचो आँधियों से चली आ रही है।

आँखों में सावन न देखा किसी ने,
कि सावन में साजन कलम लिख रही है।
कलाकार देखा है खेतों में जाकर,
कि कदवा बनाती कला दीख रही है।

सेजों पर सोती कला है अगर, तो!
खेतों से कजरी टली जा रही है।

कलाकार खेतों में हल जोतता है,
कला दौड़ उसको खिलाने चली है।
कलाकार मूर्छित सा लू की लपट से,
कला उस मृतक को जिलाने चली है।

कला पर, तुम्हारी आशा जगाये,
मनाने पिया को चली जा रही है।

मल्लाहों ने अपनी डूबा दी है नैया,
सुना है किसी से कला मर रही है।
कागों ने सीखा है कोयल से गाना,
कला की फसल टिड्डियाँ चर रही है।

कलाकार सम्भालो, सम्भालो कलम को,
रे! खेती कला की जली जा रही है।

कला वह नहीं, जो कला के लिये है,
भला वह नहीं, जो भला के लिये है।
कलाकार तोड़ो खुमारी तू अपनी,
कला मत्त कैसी बला को पीये है।

तूफ़ानों में दिये कला क्या जलाये,
कला खाक में अब मिली जा रही है।

कलाकार कब तुम कला को उठाकर,
गगन से जरा आँख अपनी गिराकर,
नरता की काया पर फिर से लिखोगे,
पतन पर मनुजता के आँसू बहाकर।

लिखोगे अगर तुम कला आँसूओं से,
तो देखोगे क्या-क्या मजा ला रही है।

कलाकार वह है जो मानव हृदय पर,
लिखे गीत अपने कभी मिट गया है।
युग-युग की साँसों की, धड़कन को अपनी,
ही धड़कन समझकर अगर लिख गया है।

लिखोगे सितारे भी रोते गगन में,
यहाँ पर मनुजता मरी जा रही है।

उठाओ कलम फिर धरा जल रही है,
अन्तर में आँधी अभी चल रही है।
मुसीबत की घड़ियाँ उपस्थित धरा पर,
जमीं रो रही है जमाँ की दशा पर।

कलाकार कब तक उठोगे! बताओ,
कला पर मुसीबत चली आ रही है।